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धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेदं जु॑षन्तां प्र॒जाप॑तिर्निधि॒पा दे॒वोऽअ॒ग्निः। त्वष्टा॒ विष्णुः॑ प्र॒जया॑ सꣳररा॒णा यज॑मानाय॒ द्रवि॑णं दधात॒ स्वाहा॑ ॥१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

धा॒ता। रा॒तिः। स॒वि॒ता। इदम्। जु॒ष॒न्ता॒म्। प्र॒जा॑पति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। नि॒धि॒पा इति॑ निधि॒ऽपाः। दे॒वः। अ॒ग्निः। त्वष्टा॑। विष्णुः॑। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽर॒रा॒णाः। यज॑मानाय। द्रवि॑णम्। द॒धा॒त॒। स्वाहा॑ ॥१७॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के कर्म्म का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थो ! तुम (धाता) गृहाश्रम धर्म्म धारण करने (रातिः) सब के लिये सुख देने (सविता) समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने (प्रजापतिः) सन्तानादि के पालने (निधिपाः) विद्या आदि ऋद्धि अर्थात् धन समृद्धि के रक्षा करने (देवः) दोषों के जीतने (अग्निः) अविद्या रूप अन्धकार के दाह करने (त्वष्टा) सुख के बढ़ाने और (विष्णुः) समस्त उत्तम-उत्तम शुभ गुण कर्म्मों में व्याप्त होनेवालों के सदृश हो के (प्रजया) अपने सन्तानादि के साथ (संरराणाः) उत्तम दानशील होते हुए (स्वाहा) सत्य क्रिया से (इदम्) इस गृहकार्य्य को (जुषन्ताम्) प्रीति के साथ सेवन करो और बलवान् गृहाश्रमी होकर (यजमानाय) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले के लिये जिस बल से उत्तम-उत्तम बली पुरुष बढ़ते जायें, उस (द्रविणम्) धन को (दधात) धारण करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थों को उचित है कि यथायोग्य रीति से निरन्तर गृहाश्रम में रह के अच्छे गुण कर्मों का धारण, ऐश्वर्य की उन्नति तथा रक्षा, प्रजापालन, योग्य पुरुषों को दान, दुःखियों का दुःख छुड़ाना, शत्रुओं को जीतने और शरीरात्मबल में प्रवृत्ति आदि गुण धारण करें ॥१७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गार्हस्थ्यकर्म्म आह ॥

अन्वय:

(धाता) गृहाश्रमधर्त्ता (रातिः) सर्वेभ्यः सुखदायकः (सविता) सकलैश्वर्य्योत्पादकः (इदम्) गृहकृत्यम् (जुषन्ताम्) प्रीत्या सेवन्ताम् (प्रजापतिः) सन्तानादिपालकः (निधिपाः) विद्यावृद्धिरक्षकाः (देवः) दोषविजेता (अग्निः) अविद्यान्धकारदाहकः (त्वष्टा) सुखविस्तारकः (विष्णुः) सर्वशुभगुणकर्म्मसु व्याप्तः (प्रजया) स्वसन्तानादिना (संरराणः) सम्यग्दातारः सन्तः (यजमानाय) यज्ञानुष्ठात्रे (द्रविणम्) द्रवन्ति भूतानि यस्मिन् तद्धनम्। द्रविणमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.९) (दधात) धरत (स्वाहा) सत्यया क्रियया। अयं मन्त्रः (शत०४.४.४.९) व्याख्यातः ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थाः ! भवन्तो धाता रातिः सविता प्रजापतिर्निधिपा देवोऽग्निस्त्वष्टा विष्णुरिवैतत् स्वभावा भूत्वा प्रजया सह संरराणास्सन्तः स्वाहेदं जुषन्तां बलवन्तो भूत्वा यजमानाय स्वाहा द्रविणं दधात ॥१७॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थैः सततं यथोचितसमये गृहाश्रमे स्थित्वा सद्गुणकर्म्मधारणमैश्वर्य्योन्नतिरक्षणे प्रजापालनम्, सुपात्रेभ्यो दानम्, दुःखिनां दुःखच्छेदनम्, शत्रुविजयः, शरीरात्मबलव्याप्तिश्च धार्य्या ॥१७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाश्रमी व्यक्तींनी सदैव गृहस्थाश्रमाचे पालन योग्य रीतीने करावे व चांगल्या गुणकर्माचा स्वीकार करावा. ऐश्वर्य वाढवावे आणि त्याचे रक्षण करावे, संततीचे रक्षण करावे, योग्य माणसांना दान द्यावे, दुःखितांचे अश्रू पुसावे. शत्रूला जिंकावे व शरीर आणि आत्मबल वाढवावे.